Friday, March 13, 2009

राधे-कृष्ण (लघुकथा)

पिता घर के कोने में बैठे सन्न थे. माता रो रही थी. भाई ने बहन को झन्नाटेदार थप्पर लगाया. सबको आज ही जानकारी मिली थी कि वह किसी लड़के से प्रेम करती है. बहन गुस्से में काँपती हुई भाई को गालियाँ सुनाए जा रही थी, उस भाई को जो बड़ा है और जिसने अब तक मोबाइल की फ़र्माइश पूरी नहीं की, फिर भी आज इतनी हिम्मत! अचानक घर से निकलने लगी यह कहकर कि अब वह इस घर में नहीं रहेगी. पकड़ लिया भाई ने, फिर लगाए थप्पड़. माता का रूदन बढ़ गया. बहन भी चिल्लाने लगी रोते हुए. पिता डरने लगे कहीं आत्महत्या न कर ले बेटी! …
धीरे-धीरे घर में छा गया सन्नाटा. कल जन्माष्टमी है. राधे-कृष्ण, राधे-कृष्ण !

फेरे सात (लघुकथा)

कभी बड़े उमंग और उल्लास में पूरे हुए थे फेरे सात. पर आज वह पास तो है लेकिन साथ नहीं. पास भी इसलिए है क्योंकि पास रहने को विवश किया है वस्तुओं ने, पदार्थों ने, सौन्दर्य प्रसाधनों ने, विलासिता के उपकरणों ने. और इन्हीं चीजों ने ही शायद उसके साथ नहीं रहने दिया. इन्हीं से उत्पन्न "मैं" से कल ऐसा भी होगा कि पास भी रहने नहीं देगा. इसके बावजूद जाने क्यों मैं भी कष्टों से परे सजीव रह रहा हूँ और सजीव ही रहूँगा. जाने क्यों?
चिट्ठाजगत