Saturday, August 2, 2008

झुग्गी निवासी का हृदयोद्गार


परेशान सहमी नज़रों से
बादल को घिरते देखा है

जिनके होने में जीवन है
जीवन की गति भी जिनमें है
उन संजोये सामानों को
घड़ी घड़ी गलते देखा है
बादल को घिरते देखा है

दरवाजों के झटके से
हिलते दीवारों के दु:ख पर
छप्पर को रोते देखा है
बादल को घिरते देखा है

अपने श्रम से जीने वाली
गृहणी के गीले आंचल में
बालक को डरते देखा है
बादल को घिरते देखा है

केवल भावजगत से मिले उधार
अपने जीवन की खुशियों को
हर एक पल मरते देखा है
बादल को घिरते देखा है.

1 comment:

राज भाटिय़ा said...

कया दर्द हे आप की कविता मे,धन्यवाद इस दर्द का अहसास दिलाने के लिये,लेकिन ....

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