Thursday, June 12, 2008

फलक काफी दूर है


पहले था उछलता मैं
और था दौड़ता
तेज बहुत,
फिर मैं लगा चलने
कभी धीरे
कभी तेज,
अब मैं रेंगता हूं पर,
फलक अब भी
काफी दूर है.
पहले था कुछ भी नहीं
फिर भी था सबकुछ
दुनियां थी मुट्ठी में,
फिर रही सफ़र में
केवल आशाऐं,
अब मैं तन्हा हूं
फलक फिर भी
काफी दूर है.

तय नहीं हो सकती
कभी भी यह दूरी
किसी भी यत्न से
इस जीवन में,
शायद किसी भी जीवन में,
क्योंकि फलक वाकई
काफी दूर है.

फलक यही क्यों नहीं
जो मेरे साथ है,
अ-सोचनीय
अ-दर्शनीय
कल्पनातीत
ये भी तो
काफी दूर था,
पाया जिसे मैंने
अनवरत संघर्ष से.
लेकिन मन अभी भी कहता
फलक बहुत ही दूर है.

1 comment:

Dr. Chandra Kumar Jain said...

फलक को पाना कहाँ है ?
वह तो अपने ही भीतर है,
जिसे पाया गया संघर्ष से,
वह फलक से गुरुतर है !
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कविता एक तलाश...और बेकली है.
अच्छी लगी.
डा.चंद्रकुमार जैन

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