Tuesday, June 10, 2008

चाहत


जब

तुमने देखा
आकाश,
और चाहा प्रसार
कि आकाश में लगे बरसने
ओले-
तुमने देखा अपने अगल-बगल
तुम अकेली थी
और थे
तुम पर बरसते ओले!

तुमने देखा
सागर,
और चाहा उसकी मौंजें,
कि मौंजें बन गयीं
उफनती ज्वाला-
तुमने देखा अपने अगल-बगल
तुम अकेली थी
और थी
तुम्हें झुलसाती ज्वाला!

तुमने देखा
फूल,
और चाहा हल्के बयार में झूमना-खिलना,
कि फूल बन गये
ज़हरीले साँप-
तुमने देखा अपने अगल-बगल
तुम अकेली थी
और थे
तुम्हारे जिस्म पर निशाल छोड़ते सर्प!

तुमने देखी
चिड़िया,
और चाहा चहचहाना डालों पर
कि उसके मुंह से निकली
दनदनाती गोलियां-
तुमने देखा अपने अगल-बगल
तुम अकेली थी
और थी
तुम्हारे सीने में धंसती गोलियां!

अब

तुम देखो
जंजीरें,
और खोलो मुंह
कि तुम्हारे शब्दों से जंजीरें हो जायें लाल
और तोड़ने को उसे
करने को चोट
उठाओ हाथ,
मैं उन हाथों की
कुल्हाड़ी बन सकता हूं
ग़र तुम चाहो.

1 comment:

महेन said...

अद्भुत। विश्वसनीय रूमानियत। काश इस तरह कोई साथ देता। अस्तु।
शुभम।

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