Thursday, July 3, 2008

ये कैसा मैं हूँ


जुड़वा बच्चों की ये माँ
जब देखती है मुँह
अपने नवजात लाड़लों की
भूल जाती है अपने पेट का मरोड़
सूखे छाती की पीड़ा
मुसीबतों के थपेड़ों में घिसटती ज़िन्दगी
और अंकुरित हो जाती है
सुखद भविष्य की आशायें.
इस माँ को बेचना पड़ा अपना एक लाल
केवल दस रूपये में
भूख से मरते नहीं देख सकती थी उसे.
लेकिन
कुछ ही दिनों बाद
उसे देखना ही पड़ा
मरना अपने दूसरे लाल का
भूख से तड़पकर
तड़प-तड़प कर....
उसी दिन सभी अखबारों में ख़बर छपी थी
भारत के विदेशी मुद्राओं का भंडार
सौ अरब डालर तक पहुँचा.

मियाँ कह रहा था-'बस एक महीने और
फिर हमारी मोहब्बत आयेगी हमारे बीच
लड़की होगी बिल्कुल तुम्हारी तरह..'
फिर लगे दोनों सपने बुनने
लड़की के कैरियर से लेकर
निकाह-ससुराल तक.
अगले दिन
घर में घुस आया
शोर, चीखें और गुहारों के बीच
तलवारों और त्रिशूलों का काफ़िला
एक तलवार ने मियाँ की गर्दन उड़ा दी
दूसरे ने बेज्ज़त बीवी का पेट फाड़ दिया
'मोहब्बत' खून के बलबलों के साथ
बाहर आ गिरी
एक त्रिशूल उसमें आ धँसा
और उसे उठा लिया हवा में
और फिर हवा में गूँज उठी नाद
नाद जय श्री राम की
नाद हर हर महादेव की.
इन्हीं दिनों प्रधानमंत्री भारत के धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिकता पर
विदेशों में गर्व बखान रहे थे.

छ: साल के आफ़ताब के पिता को
सद्दाम के सैनिकों ने मार डाला
कहा 'कम्युनिस्ट' था.
आठ साल का आफ़ताब अब
अपनी बेबा अम्मी के लिए
सहारा है, सपना भी
वर्तमान भी और भविष्य भी.
इराक पर अमेरिका ने हमला किया
कहते हैं, आफ़ताब के ठीक सिर पर
मिसाईल गिरी जब वह सड़क पर
अख़बार बेच रहा था.
अगले दिन सी-एन-एन पर जार्ज बुश कह रहे थे
'इट्स ऑल फॉर जस्टिस'
(ये सब न्याय के लिए है.)

ऐसे सैकड़ों-हजारों दास्तान
मैं जानता हूँ
जो हमारे समय की सच्चाई है
फिर भी मेरे अपने
मैं चाहता हूँ
कि पूरी हो सबकी हर ख्वाहिश
कि प्राप्त कर सके अपना इच्छित प्राप्य
कि जी सकें वैसे जैसा वे चाहें
कि उनके उज्ज्वल जीवन की फलक में
न घुस पाए
समय की काली रेत.....
हर उस दिन
जिस दिन उन्हें 'विश' करना होता है.
ये कैसा मैं हूँ
कैसी मेरी चाहत!

1 comment:

महेन said...

कविता अच्छी लगी मगर इसे मैं पहले भी पढ़ चुका हूँ,कहाँ याद नहीं। आप ही मदद करें बताने में।
शुभम।

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