Tuesday, May 20, 2008

मैं और एक कविता


मैंने देखी
एक सुंदर कविता
और शुरू किया उसे पढ़ना
लगा जैसे आज तक
मुझे इसी भाव-बोध की तलाश थी.

धीरे-धीरे कविता कुतर्क हो गयी
फिर अहं....फिर ज़िद
.........फिर गुस्सा
..........झुंझलाहट
.............तनाव
और बिखराव......
आखिर कविता
चंद उलजलूल शब्दों की
तुकबंदी बनकर रह गयी.

मैंने कविता को
मन माफ़िक सुधारकर लिखना चाहा
और मेरी हर कोशिश ने
बार-बार सिद्ध किया
कि
मैं पाठक अयोग्य हूँ.


________________________ भास्कर

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