Monday, July 28, 2008

रूठ ना जाने का प्रेमालाप


जब से आयी हो
वो जो नहीं था
जिसकी कमी का अहसास भी नहीं था
उसे आँखों में समेटे
दिल में बसाये
खुद पे मग़रूर कुछ यूँ
मदहोश सा फिर रहा हूँ
जैसे
जन्मों-जन्मों की ख्वाहिश
मेरी हथेलियों पर
मेरी बदकिस्मती को धता बता
साकार हो गई हो
जैसे
हो गई हो पूरी
आरजू तमाम
तड़प को मिल गया हो
स्थायी-विराम
जैसे पा लिया हो
सदियों के तप के बाद
वांछित वर का दान.

ये मेरी गफ़लत सही
पर अब यही नियति है
मेरा भविष्य
अब यही है मेरे जीवन का आधार और अधिरचना
रास्ता भी यही, मंजिल भी यही
प्रक्रिया भी यही, परिणति भी यही
तुम बस यूँ ही
मेरा रहना
साथ मेरे
पास मेरे सदैव
रूठ ना जाना
दूर ना जाना!

1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

अपने मनोभावों को बहुत सुन्दरता से प्रस्तुत किया है।बहुत बढिया!

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