Sunday, July 27, 2008

राम की बगिया


रमुआ चौंक उठा था
जब मैंने उसे राम पुकारा,
वह लगा सोचने
राम से रमुआ होने का कारण.
और पहली बार शिकायत की
उसने खुद से
अपने रमुआ होने की.

रमुआ शहर आया.
रिक्शे चलाए, ठेला खींचा,
मेहनत की, मज़दूरी की,
फूटपाथ पर
कभी-कभी भूखे सोकर
पैसे बचाए
किसी होली में लौटा गाँव.

शहर से गाँव लौटते ही
रमुआ को राम पुकारा गया.
उसे याद आया
रमुआ से राम तक का ये सफ़र.
जिसे उसने तय किया था
अनेक गालीवाचक
नामों की गलियों से.

आज उसे शिकायत है
यहाँ अपने राम होने का
आज वह फिर
सबका रमुआ होना चाहता है
लेकिन उसे हैरानी है
आज यहाँ रमुआ उजाड़ है
और राम की बगिया लहरा रही है.

1 comment:

महेन said...

आपके ब्लोग पर प्रकाशित कुछ कविताएँ (इसे मिलाकर) मैं पहले कुछ दिनों पहले नेट पर ही पढ़ चुका हूँ। ऐसा क्यों है? क्या आप अपनी कविताएँ कहीं और भी प्रकाशित कर रहे हैं?

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