Tuesday, May 3, 2016

तमाशा


पेड़ से मिली छाया 
फल भी 
फूल भी 
उसके डाल ने हिलाया
झुलाया 
सुलाया
अनगिनत रूप दिए 
मन से निहारता रहा 
अनगिनत गंध दिए 
नस में उतारता रहा 
छोटे-मोटे 
रचे-बसे 
देख कई घोसलों से 
सपने मिले 
उदकती फुदकती 
चहकती दुबकती 
रंग विरंगे अंग संग 
अपने मिले 
हर अकेले लम्हों में 
पेड़ का रहा अतुल साथ 
उसके तनों से लिपट 
माँ - सी मिला बहुल हाथ 
याद कर उसे 
और कुछ लिख कर 
प्यासे जीभ पर बसा 
कविता रूपी ओस हूँ 
मैं और कुछ नहीं 
एहसानफरामोश हूँ !!!

Monday, March 7, 2016

लेकिन











ऐसा कर देने से
ज़्यादा सरल है
ऐसा कह देना
ऐसा कह देने से
ज़्यादा सरल है
ऐसा सोच लेना
लेकिन ये कतई सरल नहीं
इस सोच के आने की
सही वजह समझ लेना.
चिट्ठाजगत