Saturday, June 28, 2008

तुम्हारी खाँसी

भूख से बिलखते
बच्चों के लिए
कभी दूध
कभी लोरी की तरह
तुम्हारी बातें
ऐसे में उन पर
बमवर्षक की भूमिका में
तुम्हारी खाँसी....

गले की मामूली ख़राश को
निमित्त बना
किसी बुश और ब्लेयर की तरह
अपने कुकृत्य को उचित ठहराती
तुम्हारी खाँसी
तुम्हारे पूरे शरीर को
झकझोर डालती है
किसी ईराक और अफगानिस्तान की मानिन्द....

किन्हीं कानों के
तरसते आरजूओं के लिए
तुम्हारी सुरीली-मीठी आवाज़
और
तुम्हारी खाँसी
उसे महज शोर में बदल देता
तालिबानी हमला....

खाँसी
एक अनैच्छिक क्रिया
यानी तुम्हारी सद्इच्छाओं पर
एक तानाशाही दमनचक्र
यानी
एक ऐसी बिमारी
कि जिसे
जनआंदोलनों के ग्लाइकोडिन की
सख्त ज़रूरत है.

Thursday, June 26, 2008

हे मेरे वे


आज मैं बिल्कुल दु:खी नहीं हूँ
क्योंकि मैं अपने आप को समझा सकता हूँ
मना सकता हूँ
मेरे पास सौ से अधिक ऐसे तर्क हैं
जो सिद्ध कर सकते हैं
कि मुझे
दु:खी होने का कोई अधिकार ही नहीं है.
कोई चाहे कुछ भी कह दे
कोई चाहे कुछ भी कर ले
गलती सदैव मेरी ही होती है,
क्योंकि मुझे मानना पड़ता है
क्योंकि मेरे पास चारा नहीं है
क्योंकि मैं वैसा नहीं हूँ जैसे लोग हैं
क्योंकि लोग बहुत अच्छे हैं
क्योंकि वे जीना जानते हैं
जीने के लिए तिकड़म जानते हैं
और सबसे पहले
वे जीने का मक़सद जानते हैं,
क्योंकि वे खुद को जानते हैं
क्योंकि खुद के लिए दुनिया की जरूरत जानते हैं
और इसी आधार पर
दुनिया से खुद का रिश्ता बनाते हैं.
जिनसे उनकी खुदी बुलंद नहीं होती
वो उनके सामने ऐसे रहते हैं
जैसे अंधेरा
क्योंकि वो एक उलझन है
एक परेशानी है
एक समस्या है
कुल मिलाकर एक सिरदर्द है
जिनसे दामन बचा ही रहे तो बेहतर है.

मैं दु:खी नहीं हूँ
क्योंकि किसी को दु:खी करना
सामान्यत: मेरी फ़ितरत नहीं है,
क्योंकि मैं जानता हूँ प्यार करना
क्योंकि मैं प्यार महसूस कर सकता हूँ
फिर भी यह सोचना
कि कभी कोई
मेरे दु:ख से दु:खी होगा
बहुत बड़ा छलावा है.
उन्हें दु:ख नहीं होगा
क्योंकि उन्हें दु:ख से चिढ़ है
क्योंकि वे दु:ख से बौखलाते हैं
क्योंकि उन्हें दु:ख का एहसास नहीं है
क्योंकि उन्हें नहीं मालूम प्यार क्या है
क्योंकि उन्हें प्यार महसूस करने से परहेज है
क्योंकि वे बड़े लोग हैं
मैं छोटा!
नहीं जानता जीना
या शायद
हम जैसे लोग ही
सही मायनों में
जीवित हैं.

Wednesday, June 18, 2008

कैसे कहूँ


चाँद सितारों की दुनियाँ
बागों बहारों की दुनियाँ
पहाड़ों नज़ारों की दुनियाँ
अच्छे लगते हैं मुझे,
तुम भी अच्छी हो.

अपनी माँ के सामने
भूख से रोता
उल्टी हथेली और कलाई से
नाक और आँख से बहते पानी पोछता
बच्चा,
कठोर धरती का कलेजा फाड़
भुरभुरी बनाता बढ़ता
हल का वह नुकीला
फाल,
गर्म लाल ज़िद्दी लोहे पर
वेग से गिरता
हथौड़ा..........इत्यादि,
और अच्छे लगते हैं ये.
तुम भी बहुत अच्छी हो.
जानता हूँ
इतना नहीं है पर्याप्त,
पर मैं हूँ दुविधा में__
कैसे कहूँ खुश रहो हमेशा
जबकि मैं जानता हूँ
आज खुश होना
एक घटना है.
कैसे कहूँ सलामत रहो,
जबकि
हर शख्स तुम्हारे सिर को
अपनी मंजिल के लिए
सीढ़ी बनाना चाहता है.
कैसे कहूँ कि
ईश्वर करेगा तुम्हारा कल्याण
जबकि जानता हूँ
नहीं है कोई भी ईश्वर
जो
सोचे तुम्हारा भला.
आज जब
सारी शुभकामनायें
प्रतीत हो रही है निरर्थक सी
कैसे कहूँ..........!

Thursday, June 12, 2008

फलक काफी दूर है


पहले था उछलता मैं
और था दौड़ता
तेज बहुत,
फिर मैं लगा चलने
कभी धीरे
कभी तेज,
अब मैं रेंगता हूं पर,
फलक अब भी
काफी दूर है.
पहले था कुछ भी नहीं
फिर भी था सबकुछ
दुनियां थी मुट्ठी में,
फिर रही सफ़र में
केवल आशाऐं,
अब मैं तन्हा हूं
फलक फिर भी
काफी दूर है.

तय नहीं हो सकती
कभी भी यह दूरी
किसी भी यत्न से
इस जीवन में,
शायद किसी भी जीवन में,
क्योंकि फलक वाकई
काफी दूर है.

फलक यही क्यों नहीं
जो मेरे साथ है,
अ-सोचनीय
अ-दर्शनीय
कल्पनातीत
ये भी तो
काफी दूर था,
पाया जिसे मैंने
अनवरत संघर्ष से.
लेकिन मन अभी भी कहता
फलक बहुत ही दूर है.

Tuesday, June 10, 2008

चाहत


जब

तुमने देखा
आकाश,
और चाहा प्रसार
कि आकाश में लगे बरसने
ओले-
तुमने देखा अपने अगल-बगल
तुम अकेली थी
और थे
तुम पर बरसते ओले!

तुमने देखा
सागर,
और चाहा उसकी मौंजें,
कि मौंजें बन गयीं
उफनती ज्वाला-
तुमने देखा अपने अगल-बगल
तुम अकेली थी
और थी
तुम्हें झुलसाती ज्वाला!

तुमने देखा
फूल,
और चाहा हल्के बयार में झूमना-खिलना,
कि फूल बन गये
ज़हरीले साँप-
तुमने देखा अपने अगल-बगल
तुम अकेली थी
और थे
तुम्हारे जिस्म पर निशाल छोड़ते सर्प!

तुमने देखी
चिड़िया,
और चाहा चहचहाना डालों पर
कि उसके मुंह से निकली
दनदनाती गोलियां-
तुमने देखा अपने अगल-बगल
तुम अकेली थी
और थी
तुम्हारे सीने में धंसती गोलियां!

अब

तुम देखो
जंजीरें,
और खोलो मुंह
कि तुम्हारे शब्दों से जंजीरें हो जायें लाल
और तोड़ने को उसे
करने को चोट
उठाओ हाथ,
मैं उन हाथों की
कुल्हाड़ी बन सकता हूं
ग़र तुम चाहो.

Saturday, June 7, 2008

तुम


जिसे ढूँढता रहा
सागर की गहराइयों में,
पर्वतों की गुफाओं में,
ग्रहों में, नक्षत्रों में,
और न जाने कहाँ-कहाँ.
उसे देखता हूँ मैं
तुम्हारे आँखों में सजे
निश्छल सौन्दर्य के
अविकल भावों में.
जिसमें बसा है वह
जो मिलता है,
जुते ज़मीन पर गिरे
चार बूँद पानी में,
नवजात बच्चों के
मस्तभरी छलाँगों में,
धड़कनों और
ज़ुबानों को रोककर,
छलकनें को उतावले
आँसूओं में...
* तुम अमूल्य हो *
चिट्ठाजगत