Sunday, June 28, 2009

वक्त बेवक्त


सूखी ही सही
दो रोटी और दो चुल्लू पानी के लिए
ये दोनों
भिगोये जाते हैं पसीने में
दिन भर,
और कठिनतम परिश्रमों में
गूंथकर
तपाये जाते हैं
तुच्छ स्वार्थियों की लोलुपता में.

रात की गहरी खमोशी
इनका बच्चा रोता है
पहले धीरे
फिर जोर से
फिर वह चिल्लाता है
जोर-जोर से,
लेकिन कुछ ही देर में
आवाज़ बन जाती है
घुटन
और वह सो जाता है
अंदर ही अंदर
घुटते-घुटते.
ये दोनों हैं सो रहे
अभी-भी
मौत की-सी नींद में.

सुबह उन्हें हैं फिर जन्म लेना
रात की अकल्पित पर
निर्णीत मौत के लिए!

Wednesday, June 24, 2009

अह्म (मैं) भाव का अतिरेक


(आज की देखी एक घटना पर आधारित)

"बिहारी" को
गालीवाचक शब्दों में प्रयोग करनेवाले नागरिकों पर
इस सत्य और तथ्य का
काई असर नहीं पड़ता
कि
वह कितना कर्मठ है
कितना ज्ञानी और विद्वान
मुफ़लस व्यवस्था के इन निवासियों में
कैसी है
आचरण की सभ्यता
व्यवहारिक मूल्यों की मानवता।
दरअसल
अह्म (मैं) भाव का अतिरेक
एक ऐसा हिटलर है
जिसमें प्रेम और
साहचर्य संबंध के लिए
कोई स्थान नहीं।

Sunday, June 14, 2009

आज आम आदमी की पहचान










दिन दूनी रात चौगुनी

तरक्की की लालसा में

आम आदमी

भीड़ में बिगड़ती, खोती पहचान

बचाने बनाने की लालसा में

आम आदमी

जीवन में हर घड़ी

सूअर की तरह मरता है

साथियों के अभाव में।

आम आदमी में

ज्ञान का अभाव नहीं

मूल्य भी अपार है

लेकिन इसका नपुंसक हो जाना ही

आज आम आदमी की पहचान है।

Saturday, June 13, 2009

कुछ यूं ही दिख रहे हैं


परिस्थितिजन्य मजबूरियों में व्यस्त
कुछ आकुल
कुछ व्याकुल
कुछ में झुंझलाहट बहुत है जो
डर से परे नहीं,
चेहरे से है नदारत
कृत्रिम श्रृंगार की चमक,
आज प्राकृतिक दमक ने
उन्हें आम बना दिया है,
आज उनकी पहचान है
भाषिक अभिव्यक्ति मूलक भ्रम में नहीं
बल्कि
हस्तलिपि के सौन्दर्य में।
कुछ यूं ही दिख रहे हैं
महाविद्यालय के परीक्षा भवन में बैठे
परीक्षार्थी।
चिट्ठाजगत